Monday, July 24, 2017

स्वाद तो है ही आप को स्वस्थ भी रखती है भड्डू की दाल।



भड्डू भंगार ( ना पीतल ना कांसा ) का बर्तन होता है। भंगार की मोटी परत से बना बर्तन जिसका निचला हिस्सा चौड़ा और भारी जबकि ऊपरी हिस्सा संकरा होता है। जमीन में गड्ढा खोदकर जो बभट्टिय बनायीं जाती हैं। राजमा सुन्टा उडद गौथ भिगाई हुई रहती है भड्डू मै डालकर भट्टी पर चढ़ाया जाता है अमूमन 2-4 दालों को भिगाकर बनायी जाती है। इन दालों को रात में भिगोकर रख दो और सुबह इन्हें भड्डू में पकाओ। इसमें तेल, मसाले और नमक मिलाकर धीमी आंच पर भड्डू में अच्छी तरह से पकने दो और बाद में इसमें लाल मिर्च, जीरा, धनिया और यहां तक कि जख्या का तड़का लगा दो। भड्डू की बनी गरमागर्म दाल खाओगे तो फिर दुनिया के बड़े से बड़े 'सेफ' के हाथों की बनी दाल का स्वाद भी भूल जाओगे। भड्डू की दाल तो आप भी मिस करते होंगे इसलिऐ आपका मन भी आज ही खाने को चाह रहा होगा क्यों नही आने वाले समय शादी पार्टी का है।
आप सोच रहे होंगे कि ये भड्डू के बारे मे हमे पत्ता है हमे क्यों बता रहै? हां भाई हां कुछ ही समय पहले घर घर भड्डू होता था। मजे से दाल बनती थी ओर मजे से खाई जाती थी। आज हालांकि बाजार की दाल भड्डू पे बनाने मे भी शरम आती होगी क्योंकि भड्डू वाली दाल ही बिलुप्त हो गई तो भड्डू बिलुप्त होगा ही। लेकिन हमने कोशिश करनी है कि इसे बचाऐं ना कि याद ही रखें।
आपने भड्डू की दाल खायी होगी लेकिन एक बार भड्डू में बनी दाल खाओगे तो फिर उंगलियां चाटते रहोगे। कहीं तो मिलती है आजकल गांव मे जरूर मिलेगी लेकिन कुछ खास मौको पर । शादी पार्टी मे तो आज भी गेड्डू (भड्डू ) की दाल का ही प्रचलन है।

लेकिन तेजी से भागती जिंदगी ने भड्डू को पीछे छोड़ दिया।
पिछले दिनों कवि और वरिष्ठ पत्रकार गणेश खुगशाल की एक कविता पढ़ी '' भड्डू, न त लमडु, न टुटु, न फुटु, पर जख गै होलु, स्वादी ही बस रै गे।
पहाड़ों में कई सदियों से भड्डू का उपयोग दाल और मांस पकाने के लिये किया जाता रहा। इसमें दाल बनाने में समय लगता है। इसके भागदौड भरी जिन्दगी में इसके मायने कम हो गये हैं । लेकिन जो इसका स्वाद है वो हमेशा रहेगा। ओर इस से जुडी यादें भी किताबों मे मिलती रहेंगीं।

पहले तो छोटा भड्डू परिवार के काम आता था तो बड़ा भड्डू गांव के। गांव में कोई शादी हो या अन्य कार्य बड़े भड्डू (गेडू या ग्याडा या टोखणी) में ही दाल बनती थी। बड़ा भड्डू या ग्याडा भी पंचायत के बर्तन होते थे। यदि किसी के पास ग्याडा होता था तो वह उसे पंचायत को दे देता था। हमारा भी ऐक गेड्डू था वह इतना भारी था कि खाली होने पर भी दो व्यक्ति मिलकर ही उसे चूल्हे में रख पाते थे। उसमें पानी भी भरकर रखा जाता था।
बड़ा भड्डू यानि ग्याडा। पहाड़ में कहीं इसे टोखणी भी कहा जाता है।
जिस परिवार में भड्डू होता था उसके पास इसे चूल्हे से उतारने के लिये संडासी भी होती थी। वैसे भड्डू को संडासी से निकालना हर किसी के वश की बात नहीं होती थी। आज भी पहाड़ के कई परिवारों के पास भड्डू होगा लेकिन इनका इस्तेमाल बहुत कम किया जाता है। मेरी तो यही गुजारिश है कि यदि आपके परिवार में भड्डू है तो उसे कोने से निकालिए और फिर उसमें दाल बनाकर खाईये। यह स्वादिष्ट ही नहीं स्वास्थ्यवर्धक भी होगी। आपका स्वास्थ्य हमेशा तदुंरूस्त रहेगा ।
भड्डू में दाल बनाने का तरीका भी अलग होता है। दाल बनाने से पहले इसके चारों तरफ राख को गीली करके उसका लेप लगाया जाता था और फिर इसमें दाल या गोश्त बनता था।
भड्डू की दाल का महत्व समझने वाले इसका आज भी उपयोग करते हैं । सामन्य ठंग से चित्रण ओर मनन करें तो हम भड्डू के नाम पर चर्चा कर सकते हैं। यह जादा रोचक होगा 🚮

No comments:

Post a Comment